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बीजगणित-सी शाम / Ghazal

Sunday, April 20, 2008

अंकगणित-सी सुबह है मेरी
बीजगणित-सी शाम

रेखाओं में खिंची हुई है
मेरी उम्र तमाम।

भोर-किरण ने दिया गुणनफल
दुख का, सुख का भाग

जोड़ दिए आहों में आँसू
घटा प्रीत का फाग

प्रश्नचिह्न ही मिले सदा से
मिला न पूर्ण विराम।

जन्म-मरण के 'ब्रैकिट' में
यह हुई ज़िंदगी क़ैद

ब्रैकिट के ही साथ खुल गए
इस जीवन के भेद

नफ़ी-नफ़ी सब जमा हो रहे
आँसू आठों याम।

आँसू, आह, अभावों की ही
ये रेखाएँ तीन

खींच रही हैं त्रिभुज ज़िंदगी का
होकर ग़मगीन

अब तक तो ऐसे बीती है
आगे जाने राम।
..................(कुँअर बेचैन).....

वर्ना रो पड़ोगे ! / Ghazal

Sunday, April 20, 2008

बंद होंठों में छुपा लो
ये हँसी के फूल
वर्ना रो पड़ोगे।

हैं हवा के पास
अनगिन आरियाँ
कटखने तूफान की
तैयारियाँ
कर न देना आँधियों को
रोकने की भूल
वर्ना रो पड़ोगे।

हर नदी पर
अब प्रलय के खेल हैं
हर लहर के ढंग भी
बेमेल हैं
फेंक मत देना नदी पर
निज व्यथा की धूल
वर्ना रो पड़ोगे।

बंद होंठों में छुपा लो
ये हँसी के फूल
वर्ना रो पड़ोगे।
................(कुँअर बेचैन)...

होश वालों को ख़बर क्या बेख़ुदी क्या चीज़ है

Friday, April 11, 2008

होश वालों को ख़बर क्या बेख़ुदी क्या चीज़ है
इश्क़ कीजे फिर समझिये ज़िन्दगी क्या चीज़ है

उन से नज़रें क्या मिली रौशन फ़िज़ायें हो गईं
आज जाना प्यार की जादूगरी क्या चीज़ है

ख़ुलती ज़ुल्फ़ों ने सिखाई मौसमों को शायरी
झुकती आँखों ने बताया मैकशी क्या चीज़ है

हम लबों से कह न पाये उन से हाल-ए-दिल कभी
और वो समझे नहीं ये ख़ामोशी क्या चीज़ है

जहाँ न तेरी महक हो उधर न जाऊँ मैं

Friday, April 11, 2008

जहाँ न तेरी महक हो उधर न जाऊँ मैं
मेरी सरिश्त सफ़र है गुज़र न जाऊँ मैं

मेरे बदन में खुले जंगलों की मिट्टी है
मुझे सम्भाल के रखना बिखर न जाऊँ मैं

मेरे मिज़ाज में बे-मानी उलझनें हैं बहुत
मुझे उधर से बुलाना जिधर न जाऊँ मैं

कहीं पुकार न ले गहरी वादियों का सबूत
किसी मक़ाम पे आकर ठहर न जाऊँ मैं

न जाने कौन से लम्हे की बद-दुआ है ये
क़रीब घर के रहूँ और घर न जाऊँ मैं

शायर की कब्र

Friday, April 11, 2008

न वहाँ छतरी थी न घेरा
बस एक क़ब्र थी मिट्टी से उठती
मानों कोई सो गया हो लेटे-लेटे
जिस पर उतनी ही धूप पड़ती जितनी बाकी धरती पर
उतनी ही ओस और बारिश
और दो पेड़ थे आसपास बेरी और नीम के|

मेमने बच्चे और गौरैया दिन भर कूदते वहाँ
और शाम होते पूरा मुहल्ला जमा हो जाता
तिल के लड्डू गंडे-ताबीज वाले
और डुगडुगी बजाता जमूरा लिए रीछ का बच्चा
और रात को थका मांदा कोई मँगता सो रहता सट कर|

और वो सब कुछ सुनता
एक-एक तलवे की धड़कन एक कीड़े की हरकत
हर रेशे का भीतर ख़ाक में सरकना
और ऊपर उड़ते पतंगों की सिहरन
हर बधावे हर मातम में शामिल|

वह महज़ एक क़ब्र थी एक शायर की क़ब्र
जहाँ हर बसंत में लगते हैं मेले
जहाँ दो पेड़ हैं पास-पास बेरी के नीम के|

फिर इस अन्दाज़ से बहार आई / galib

Friday, April 11, 2008

फिर इस अंदाज़ से बहार आई
के हुये मेहर-ओ-माह तमाशाई

देखो ऐ सकिनान-ए-खित्ता-ए-ख़ाक
इस को कहते हैं आलम-आराई

के ज़मीं हो गई है सर ता सर
रूकश-ए-सतहे चर्ख़े मिनाई

सब्ज़े को जब कहीं जगह न मिली
बन गया रू-ए-आब पर काई

सब्ज़-ओ-गुल के देखने के लिये
चश्म-ए-नर्गिस को दी है बिनाई

है हवा में शराब की तासीर
बदानोशी है बाद पैमाई

क्यूँ न दुनिया को हो ख़ुशी "ग़ालिब"
शाह-ए-दीदार ने शिफ़ा पाई

धमकी में मर गया / galib

Friday, April 11, 2008

धम्‌की में मर गया जो न बाब-ए नबर्द था
इश्क़-ए नबर्द-पेशह तलबगार-ए मर्द था

था ज़िन्दगी में मर्ग का खटका लगा हुआ
उड़ने से पेशतर भी मिरा रन्ग ज़र्द था

तालीफ़-ए नुसख़हहा-ए वफ़ा कर रहा था मैं
मज्मू`अह-ए ख़याल अभी फ़र्द फ़र्द था

दिल ता जिगर कि साहिल-ए दरया-ए ख़ूं है अब
उस रहगुज़र में जलवह-ए गुल आगे गर्द था

जाती है कोई कश्मकश अन्दोह-ए `इश्क़ की
दिल भी अगर गया तो वुही दिल का दर्द था

अह्बाब चारह-साज़ी-ए वहशत न कर सके
ज़िन्दां में भी ख़याल बियाबां-नवर्द था

यह लाश-ए बे-कफ़न असद-ए ख़स्तह-जां की है
हक़ मग़्फ़रत करे `अजब आज़ाद मर्द था

ये न थी हमारी क़िस्मत / galib

Friday, April 11, 2008

ये न थी हमारी क़िस्मत के विसाल-ए-यार होता

ये न थी हमारी क़िस्मत के विसाल-ए-यार होता
अगर और जीते रहते यही इन्तज़ार होता

तेरे वादे पर जिये हम तो ये जान झूठ जाना
के ख़ुशी से मर न जाते अगर ऐतबार होता

तेरी नाज़ुकी से जाना कि बँधा था अह्द बोदा
कभी तू न तोड़ सकता अगर उस्तवार होता

कोई मेरे दिल से पूछे तेरे तीर-ए-नीमकश को
ये ख़लिश कहाँ से होती जो जिगर के पार होता

ये कहाँ की दोस्ती है के बने हैं दोस्त नासेह
कोई चारासाज़ होता, कोई ग़मगुसार होता

रग-ए-संग से टपकता वो लहू कि फिर न थमता
जिसे ग़म समझ रहे हो ये अगर शरार होता

ग़म अगर्चे जाँगुसिल है, पे कहाँ बचें के दिल है
ग़म-ए-इश्क़ गर न होता, ग़म-ए-रोज़गार होता

कहूँ किस से मैं के क्या है, शब-ए-ग़म बुरी बला है
मुझे क्या बुरा था मरना अगर एक बार होता

हुए मर के हम जो रुसवा, हुए क्योँ न ग़र्क़-ए-दरिया
न कभी जनाज़ा उठता, न कहीं मज़ार होता

उसे कौन देख सकता कि यगना है वो यक्ता
जो दुई की बू भी होती तो कहीं दो चार होता

ये मसाइल-ए-तसव्वुफ़, ये तेरा बयान 'ग़ालिब'!
तुझे हम वली समझते, जो न बादा ख़्वार होता

इश्रत-ए-क़तरा है दरिया में फ़ना हो जाना / galib

Friday, April 11, 2008

इशरते कतरा है दरिया में फ़ना हो जाना
दर्द का हद से गुजरना है, दवा हो जाना

तुझसे है किस्मत में मेरी सूरते कुफ़्ले अब्जद
था लिखा बात के बनते ही जुदा हो जाना

दिल हुआ कशमकश चराए जहमत में तमाम
मिट गया घिसने में इस उक्दे का वा हो जाना

अब ज़फ़ा से भी हैं महरूम हम अल्लाह अल्लाह
इस कदर दुश्मने अरबाबे वफ़ा हो जाना

ज़ोफ़ से गिरिया मुबादिल बाह दम सर्द हवा
बावर आया हमें पानी का हवा हो जाना

दिल से मिटना तेरी अन्गुश्त हिनाई का ख्याल
हो गया गोश्त से नाखून का जुदा हो जाना

है मुझे अब्र ए बहारी का बरस कर खुलना
रोते रोते गमे फ़ुरकत में फ़ना हो जाना

गर नहीं निकहते गुल को तेरे कूचे की हवस
क्यों है गर्द ए राहे जोलने सबा हो जाना

बख्शे हैं जलवे गुल जोशे तमाशा गालिब
चश्म को चाहिये हर रंग में वा हो जाना

एक एक क़तरे का मुझे देना पड़ा हिसाब / galib

Friday, April 11, 2008

एक एक क़तरे का मुझे देना पड़ा हिसाब
ख़ून-ए-जिगर वदीअत-ए-मिज़गान-ए-यार था

अब मैं हूँ और मातम-ए-यक शहर-ए-आरज़ू
तोड़ा जो तू ने आईना तिम्सालदार था

गलियों में मेरी नाश को खेंचे फिरो कि मैं
जाँ दाद-ए-हवा-ए-सर-ए-रहगुज़ार था

मौज-ए-सराब-ए-दश्त-ए-वफ़ा का न पूछ हाल
हर ज़र्रा मिस्ले-जौहरे-तेग़ आबदार था

कम जानते थे हम भी ग़म-ए-इश्क़ को पर अब
देखा तो कम हुए पे ग़म-ए-रोज़गार था

सादगी पर उस की मर जाने की हसरत दिल में है / galib

Friday, April 11, 2008

सादगी पर उस की मर जाने की हसरत दिल में है
बस नहीं चलता कि फिर ख़न्जर कफ़-ए-क़ातिल में है

देखना तक़रीर की लज़्ज़त कि जो उसने कहा
मैंने यह जाना कि गोया यह भी मेरे दिल में है

गरचे है किस किस बुराई से वले बा ईं हमा
ज़िक्र मेरा मुझ से बेहतर है कि उस महफ़िल में है

बस हुजूम-ए-ना उमीदी ख़ाक में मिल जायगी
यह जो इक लज़्ज़त हमारी सइ-ए-बेहासिल में है

रंज-ए-रह क्यों खेंचिये वामांदगी को इश्क़ है
उठ नहीं सकता हमारा जो क़दम मंज़िल में है

जल्वा ज़ार-ए-आतश-ए-दोज़ख़ हमारा दिल सही
फ़ितना-ए-शोर-ए-क़यामत किस की आब-ओ-गिल में है

है दिल-ए-शोरीदा-ए-ग़ालिब तिलिस्म-ए-पेच-ओ-ताब
रहम कर अपनी तमन्ना पर कि किस मुश्किल में है

मैं उन्हें छेड़ूँ और वो / galib

Friday, April 11, 2008

मैं उन्हें छेड़ूँ और कुछ न कहें
चल निकलते जो मय पिये होते

क़हर हो या बला हो, जो कुछ हो
काश के तुम मेरे लिये होते

मेरी क़िस्मत में ग़म गर इतना था
दिल भी या रब कई दिये होते

आ ही जाता वो राह पर "ग़ालिब"
कोई दिन और भी जिये होते

ग़म-ए-दुनिया से गर पाई भी फ़ुर्सत सर उठाने की / galib

Friday, April 11, 2008

ग़म-ए-दुनिया से गर पाई भी फ़ुर्सत सर उठाने की
फ़लक का देखना तक़रीब तेरे याद आने की

खुलेगा किस तरह मज़मूँ मेरे मक्तूब का यारब
क़सम खाई है उस काफ़िर ने काग़ज़ के जलाने की

लिपटना परनियाँ में शोला-ए-आतिश का आसाँ है
वले मुश्किल है हिकमत दिल में सोज़-ए-ग़म छुपाने की

उन्हें मंज़ूर अपने ज़ख़्मियों का देख आना था
उठे थे सैर-ए-गुल को देखना शोख़ी बहाने की

हमारी सादगी थी इल्तफ़ात-ए-नाज़ पर मरना
तेरा आना न था ज़ालिम मगर तमहीद जाने की

लक़द-कोब-ए-हवादिस का तहम्मुल कर नहीं सकती
मेरी ताक़त के ज़ामिं थी बुतों के नाज़ उठाने की

कहूँ क्या ख़ूबी-ए-औज़ाग़-ए-इब्ना-ए-ज़माँ "ग़ालिब"
बदी की उसने जिस से हमने की थी बारहा नेकी

दर्द से मेरे है तुझ को बेक़रारी हाय हाय / galib

Friday, April 11, 2008

दर्द से मेरे है तुझ को बे-क़रारी हाए हाए
क्या हुई ज़ालिम तिरी ग़फलत-शि`आरी हाए हाए

तेरे दिल में गर न था आशोब-ए ग़म का हौसला
तू ने फिर क्यूं की थी मेरी ग़म-गुसारी हाए हाए

क्यूं मिरी ग़म-ख़्वारगी का तुझ को आया था ख़याल
दुश्मनी अपनी थी मेरी दोस्त-दारी हाए हाए

उम्र भर का तू ने पैमान-ए वफ़ा बांधा तो क्या
उम्र को भी तो नहीं है पाइदारी हाए हाए

ज़हर लगती है मुझे आब-ओ-हवा-ए ज़िन्दगी
यानी तुझ से थी उसे ना-साज़गारी हाए हाए

गुल-फ़िशानीहा-ए नाज़-ए जलवा को क्या हो गया
ख़ाक पर होती है तेरी लालह-कारी हाए हाए

शर्म-ए रुसवाई से जा छुपना नक़ाब-ए ख़ाक में
ख़तम है उल्फ़त की तुझ पर पर्दह-दारी हाए हाए

ख़ाक में नामूस-ए पैमान-ए मुहब्बत मिल गई
उठ गई दुनिया से राह-ओ-रस्म-ए यारी हाए हाए

हाथ ही तेग़-आज़्मा का काम से जाता रहा
दिल पह इक लगने न पाया ज़ख़्म-ए कारी हाए हाए

किस तरह काटे कोई शबहा-ए तार-ए बर्श-काल
है नज़र ख़ू-कर्दह-ए अख़्तर-शुमारी हाए हाए

गोश महजूर-ए पयाम-ओ-चश्म महरूम-ए जमाल
एक दिल तिस पर यह ना-उम्मीदवारी हाए हाए

इश्क़ ने पकड़ा न था ग़ालिब अभी वहशत का रंग
रह गया था दिल में जो कुछ ज़ौक़-ए ख़्वारी हाए हाए

तू दोस्त किसी का भी सितमगर न हुआ था / galib

Friday, April 11, 2008

तू दोस्त किसी का भी सितमगर न हुआ था
औरों पे है वो ज़ुल्म कि मुझ पर न हुआ था

छोड़ा मह-ए-नख़्शब की तरह दस्त-ए-क़ज़ा ने
ख़ुर्शीद हनोज़ उस के बराबर न हुआ था

तौफ़ीक़ ब अन्दाज़-ए-हिम्मत है अज़ल से
आँखों में है वो क़तरा कि गौहर न हुआ था

जब तक की न देखा था क़द-ए-यार का आलम
मैं मोतक़िद-ए-फ़ितना-ए-महशर न हुआ था

मैं सादा दिल आज़ुर्दगि-ए-यार से ख़ुश हूँ
यानी सबक़-ए-शौक़ मुकर्रर न हुआ था

दरिया-ए-मआसी तुनुक अभी से हुआ ख़ुश्क
मेरा सर-ए-दामन भी अभी तर न हुआ था

जारी थी असद दाग़-ए-जिगर से मेरे तहसील
आतशक़दा जागीर-ए-समन्दर न हुआ था

दिल से तेरी निगाह जिगर तक उतर गई / galib

Friday, April 11, 2008

दिल से तेरी निगाह जिगर तक उतर गई
दोनों को इक अदा में रज़ामन्द कर गई

चाक़ हो गया है सीना ख़ुशा लज़्ज़त-ए-फ़राग़
तक्लीफ़-ए-पर्दादारी-ए-ज़ख़्म-ए-जिगर गई

वो बादा-ए-शबाना की सरमस्तियाँ कहाँ
उठिये बस अब कि लज़्ज़त-ए-ख़्वाब-ए-सहर गई

उड़ती फिरे है ख़ाक मेरी कू-ए-यार में
बारे अब ऐ हवा, हवस-ए-बाल-ओ-पर गई

देखो तो दिल फ़रेबि-ए-अंदाज़-ए-नक़्श-ए-पा
मौज-ए-ख़िराम-ए-यार भी क्या गुल कतर गई

हर बुलहवस ने हुस्न परस्ती शिआर की
अब आबरू-ए-शेवा-ए-अहल-ए-नज़र गई

नज़्ज़ारे ने भी काम किया वाँ नक़ाब का
मस्ती से हर निगह तेरे रुख़ पर बिखर गई

फ़र्दा-ओ-दीं का तफ़रक़ा यक बार मिट गया
कल तुम गए कि हम पे क़यामत गुज़र गई

मारा ज़माने ने 'असदुल्लह ख़ाँ" तुम्हें
वो वलवले कहाँ, वो जवानी किधर गई

आमों की तारीफ़ में / galib

Friday, April 11, 2008

हाँ दिल-ए-दर्दमंद ज़म-ज़मा साज़
क्यूँ न खोले दर-ए-ख़ज़िना-ए-राज़

ख़ामे का सफ़्हे पर रवाँ होना
शाख़-ए-गुल का है गुल-फ़िशाँ होना

मुझ से क्या पूछता है क्या लिखिये
नुक़्ता हाये ख़िरदफ़िशाँ लिखिये

बारे, आमों का कुछ बयाँ हो जाये
ख़ामा नख़्ले रतबफ़िशाँ हो जाये

आम का कौन मर्द-ए-मैदाँ है
समर-ओ-शाख़, गुवे-ओ-चौगाँ है

ताक के जी में क्यूँ रहे अर्माँ
आये, ये गुवे और ये मैदाँ!

आम के आगे पेश जावे ख़ाक
फोड़ता है जले फफोले ताक

न चला जब किसी तरह मक़दूर
बादा-ए-नाब बन गया अंगूर

ये भी नाचार जी का खोना है
शर्म से पानी पानी होना है

मुझसे पूछो, तुम्हें ख़बर क्या है
आम के आगे नेशकर क्या है

न गुल उस में न शाख़-ओ-बर्ग न बार
जब ख़िज़ाँ आये तब हो उस की बहार

और दौड़ाईए क़यास कहाँ
जान-ए-शीरीँ में ये मिठास कहाँ

जान में होती गर ये शीरीनी
'कोहकन' बावजूद-ए-ग़मगीनी

ग़ैर ले महफ़िल में बोसे जाम के / galib

Friday, April 11, 2008

ग़ैर ले महफ़िल में बोसे जाम के
हम रहें यूँ तश्नालब पैग़ाम के

ख़स्तगी का तुम से क्या शिकवा के ये
हथकंडे हैं चर्ख़-ए-नीली फ़ाम के

ख़त लिखेंगे गर्चे मतलब कुछ न हो
हम तो आशिक़ हैं तुम्हारे नाम के

रात पी ज़म-ज़म पे मय और सुबह-दम
धोए धब्बे जाम-ए-एहराम के

दिल को आँखों ने फँसाया क्या मगर
ये भी हल्क़े हैं तुम्हारे दाम के

शाह की है ग़ुस्ल-ए-सेहत की ख़बर
देखिये दिन कब फिरें हम्माम के

इश्क़ ने 'ग़ालिब' निकम्मा कर दिया
वरना हम भी आदमी थे काम के

ज़िन्दगी यूँ हुई बसर तन्हा / गुलज़ार

Thursday, April 10, 2008

ज़िंदगी यूँ हुई बसर तन्हा
क़ाफिला साथ और सफर तन्हा

अपने साये से चौंक जाते हैं
उम्र गुज़री है इस कदर तन्हा

रात भर बोलते हैं सन्नाटे
रात काटे कोई किधर तन्हा

दिन गुज़रता नहीं है लोगों में
रात होती नहीं बसर तन्हा

हमने दरवाज़े तक तो देखा था
फिर न जाने गए किधर तन्हा

एक गज़ल उस पे लिखूँ / कृष्ण बिहारी 'नूर'

Thursday, April 10, 2008

इक ग़ज़ल उस पे लिखूँ दिल का तकाज़ा है बहुत
इन दिनों ख़ुद से बिछड़ जाने का धड़का है बहुत

रात हो दिन हो ग़फ़लत हो कि बेदारी हो
उसको देखा तो नहीं है उसे सोचा है बहुत

तश्नगी के भी मुक़ामात हैं क्या क्या यानी
कभी दरिया नहीं काफ़ी, कभी क़तरा है बहुत

मेरे हाथों की लकीरों के इज़ाफ़े हैं गवाह
मैं ने पत्थर की तरह ख़ुद को तराशा है बहुत

कोई आया है ज़रूर और यहाँ ठहरा भी है
घर की दहलीज़ पा-ए-नूर उजाला है बहुत

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