ज़िंदगी यूँ हुई बसर तन्हा
क़ाफिला साथ और सफर तन्हा
अपने साये से चौंक जाते हैं
उम्र गुज़री है इस कदर तन्हा
रात भर बोलते हैं सन्नाटे
रात काटे कोई किधर तन्हा
दिन गुज़रता नहीं है लोगों में
रात होती नहीं बसर तन्हा
हमने दरवाज़े तक तो देखा था
फिर न जाने गए किधर तन्हा
ज़िन्दगी यूँ हुई बसर तन्हा / गुलज़ार
Thursday, April 10, 2008This entry was posted on Thursday, April 10, 2008 and is filed under Ghazals, Gulzaar . You can follow any responses to this entry through the RSS 2.0 feed. You can leave a response, or trackback from your own site.
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