दर्द से मेरे है तुझ को बे-क़रारी हाए हाए
क्या हुई ज़ालिम तिरी ग़फलत-शि`आरी हाए हाए
तेरे दिल में गर न था आशोब-ए ग़म का हौसला
तू ने फिर क्यूं की थी मेरी ग़म-गुसारी हाए हाए
क्यूं मिरी ग़म-ख़्वारगी का तुझ को आया था ख़याल
दुश्मनी अपनी थी मेरी दोस्त-दारी हाए हाए
उम्र भर का तू ने पैमान-ए वफ़ा बांधा तो क्या
उम्र को भी तो नहीं है पाइदारी हाए हाए
ज़हर लगती है मुझे आब-ओ-हवा-ए ज़िन्दगी
यानी तुझ से थी उसे ना-साज़गारी हाए हाए
गुल-फ़िशानीहा-ए नाज़-ए जलवा को क्या हो गया
ख़ाक पर होती है तेरी लालह-कारी हाए हाए
शर्म-ए रुसवाई से जा छुपना नक़ाब-ए ख़ाक में
ख़तम है उल्फ़त की तुझ पर पर्दह-दारी हाए हाए
ख़ाक में नामूस-ए पैमान-ए मुहब्बत मिल गई
उठ गई दुनिया से राह-ओ-रस्म-ए यारी हाए हाए
हाथ ही तेग़-आज़्मा का काम से जाता रहा
दिल पह इक लगने न पाया ज़ख़्म-ए कारी हाए हाए
किस तरह काटे कोई शबहा-ए तार-ए बर्श-काल
है नज़र ख़ू-कर्दह-ए अख़्तर-शुमारी हाए हाए
गोश महजूर-ए पयाम-ओ-चश्म महरूम-ए जमाल
एक दिल तिस पर यह ना-उम्मीदवारी हाए हाए
इश्क़ ने पकड़ा न था ग़ालिब अभी वहशत का रंग
रह गया था दिल में जो कुछ ज़ौक़-ए ख़्वारी हाए हाए
दर्द से मेरे है तुझ को बेक़रारी हाय हाय / galib
Friday, April 11, 2008This entry was posted on Friday, April 11, 2008 and is filed under ghalib, Ghazals . You can follow any responses to this entry through the RSS 2.0 feed. You can leave a response, or trackback from your own site.
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