जहाँ न तेरी महक हो उधर न जाऊँ मैं
मेरी सरिश्त सफ़र है गुज़र न जाऊँ मैं
मेरे बदन में खुले जंगलों की मिट्टी है
मुझे सम्भाल के रखना बिखर न जाऊँ मैं
मेरे मिज़ाज में बे-मानी उलझनें हैं बहुत
मुझे उधर से बुलाना जिधर न जाऊँ मैं
कहीं पुकार न ले गहरी वादियों का सबूत
किसी मक़ाम पे आकर ठहर न जाऊँ मैं
न जाने कौन से लम्हे की बद-दुआ है ये
क़रीब घर के रहूँ और घर न जाऊँ मैं
जहाँ न तेरी महक हो उधर न जाऊँ मैं
Friday, April 11, 2008This entry was posted on Friday, April 11, 2008 and is filed under Ghazals . You can follow any responses to this entry through the RSS 2.0 feed. You can leave a response, or trackback from your own site.
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