तू दोस्त किसी का भी सितमगर न हुआ था
औरों पे है वो ज़ुल्म कि मुझ पर न हुआ था
छोड़ा मह-ए-नख़्शब की तरह दस्त-ए-क़ज़ा ने
ख़ुर्शीद हनोज़ उस के बराबर न हुआ था
तौफ़ीक़ ब अन्दाज़-ए-हिम्मत है अज़ल से
आँखों में है वो क़तरा कि गौहर न हुआ था
जब तक की न देखा था क़द-ए-यार का आलम
मैं मोतक़िद-ए-फ़ितना-ए-महशर न हुआ था
मैं सादा दिल आज़ुर्दगि-ए-यार से ख़ुश हूँ
यानी सबक़-ए-शौक़ मुकर्रर न हुआ था
दरिया-ए-मआसी तुनुक अभी से हुआ ख़ुश्क
मेरा सर-ए-दामन भी अभी तर न हुआ था
जारी थी असद दाग़-ए-जिगर से मेरे तहसील
आतशक़दा जागीर-ए-समन्दर न हुआ था
तू दोस्त किसी का भी सितमगर न हुआ था / galib
Friday, April 11, 2008This entry was posted on Friday, April 11, 2008 and is filed under ghalib, Ghazals . You can follow any responses to this entry through the RSS 2.0 feed. You can leave a response, or trackback from your own site.
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