इशरते कतरा है दरिया में फ़ना हो जाना
दर्द का हद से गुजरना है, दवा हो जाना
तुझसे है किस्मत में मेरी सूरते कुफ़्ले अब्जद
था लिखा बात के बनते ही जुदा हो जाना
दिल हुआ कशमकश चराए जहमत में तमाम
मिट गया घिसने में इस उक्दे का वा हो जाना
अब ज़फ़ा से भी हैं महरूम हम अल्लाह अल्लाह
इस कदर दुश्मने अरबाबे वफ़ा हो जाना
ज़ोफ़ से गिरिया मुबादिल बाह दम सर्द हवा
बावर आया हमें पानी का हवा हो जाना
दिल से मिटना तेरी अन्गुश्त हिनाई का ख्याल
हो गया गोश्त से नाखून का जुदा हो जाना
है मुझे अब्र ए बहारी का बरस कर खुलना
रोते रोते गमे फ़ुरकत में फ़ना हो जाना
गर नहीं निकहते गुल को तेरे कूचे की हवस
क्यों है गर्द ए राहे जोलने सबा हो जाना
बख्शे हैं जलवे गुल जोशे तमाशा गालिब
चश्म को चाहिये हर रंग में वा हो जाना
इश्रत-ए-क़तरा है दरिया में फ़ना हो जाना / galib
Friday, April 11, 2008This entry was posted on Friday, April 11, 2008 and is filed under ghalib, Ghazals . You can follow any responses to this entry through the RSS 2.0 feed. You can leave a response, or trackback from your own site.
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