फिर इस अंदाज़ से बहार आई
के हुये मेहर-ओ-माह तमाशाई
देखो ऐ सकिनान-ए-खित्ता-ए-ख़ाक
इस को कहते हैं आलम-आराई
के ज़मीं हो गई है सर ता सर
रूकश-ए-सतहे चर्ख़े मिनाई
सब्ज़े को जब कहीं जगह न मिली
बन गया रू-ए-आब पर काई
सब्ज़-ओ-गुल के देखने के लिये
चश्म-ए-नर्गिस को दी है बिनाई
है हवा में शराब की तासीर
बदानोशी है बाद पैमाई
क्यूँ न दुनिया को हो ख़ुशी "ग़ालिब"
शाह-ए-दीदार ने शिफ़ा पाई
फिर इस अन्दाज़ से बहार आई / galib
Friday, April 11, 2008This entry was posted on Friday, April 11, 2008 and is filed under ghalib, Ghazals . You can follow any responses to this entry through the RSS 2.0 feed. You can leave a response, or trackback from your own site.
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