ग़ैर ले महफ़िल में बोसे जाम के
हम रहें यूँ तश्नालब पैग़ाम के
ख़स्तगी का तुम से क्या शिकवा के ये
हथकंडे हैं चर्ख़-ए-नीली फ़ाम के
ख़त लिखेंगे गर्चे मतलब कुछ न हो
हम तो आशिक़ हैं तुम्हारे नाम के
रात पी ज़म-ज़म पे मय और सुबह-दम
धोए धब्बे जाम-ए-एहराम के
दिल को आँखों ने फँसाया क्या मगर
ये भी हल्क़े हैं तुम्हारे दाम के
शाह की है ग़ुस्ल-ए-सेहत की ख़बर
देखिये दिन कब फिरें हम्माम के
इश्क़ ने 'ग़ालिब' निकम्मा कर दिया
वरना हम भी आदमी थे काम के
ग़ैर ले महफ़िल में बोसे जाम के / galib
Friday, April 11, 2008This entry was posted on Friday, April 11, 2008 and is filed under ghalib, Ghazals . You can follow any responses to this entry through the RSS 2.0 feed. You can leave a response, or trackback from your own site.
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
0 comments:
Post a Comment