मैं अपने घर में ही अजनबी हो गया हूँ आ कर
मुझे यहाँ देखकर मेरी रूह डर गई है
सहम के सब आरज़ुएँ कोनों में जा छुपी हैं
लवें बुझा दी हैंअपने चेहरों की, हसरतों ने
कि शौक़ पहचनता ही नहीं
मुरादें दहलीज़ ही पे सर रख के मर गई हैं
मैं किस वतन की तलाश में यूँ चला था घर से
कि अपने घर में भी अजनबी हो गया हूँ आ कर
मैं अपने घर में ही अजनबी हो गया हूँ आ कर / Gulzaar
Saturday, April 19, 2008This entry was posted on Saturday, April 19, 2008 and is filed under Gulzaar . You can follow any responses to this entry through the RSS 2.0 feed. You can leave a response, or trackback from your own site.
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